Saturday 28 September 2019

भक्ति के स्वरुप

भक्ति का अर्थ हृदय में भगवान अथवा गुरू के प्रति निष्ठा और समर्पण का भाव होता है। भक्ति किसी कर्म का नहीं; अपितु हृदय के भाव का नाम है। यदि कोई व्यक्ति प्रात: काल खूब पूजा-पाठ करे, घण्टियां बजाये, तिलक लगाए, मस्तक नवाए, किन्तु उसके हृदय में कोई विशेष प्रेम ना हो, अपितु जगत के विषयों के प्रति आसक्ति का भाव हो तो वह व्यक्ति भक्त कहलाने का अधिकारी नहीं होता। इसी प्रकार कोई व्यक्ति यदि पूजा-पाठ इत्यादि करे या न करे, किन्तु उसका हृदय भक्तिरस से भरपूर हो, भगवान का नाम सुनकर अथवा भगवत-प्रतिमा या चित्र देखकर का उसकी आंखों से अश्रुपात होने लगता हो, भगवत चर्चा अथवा भावमय कीर्तन इत्यादि सुनकर वह झूम उठता हो तो उसे भक्त कहा जाएगा। जिसका हृदय इतना कोमल हो कि दीन दुखियों को देखकर करुणा से भर जाता हो तथा इतना कठोर हो कि बड़े से बड़ा दुख आने पर भी प्रभावित होता हो, मान- अपमान से अतीत हो, जिसको अभिमान छू तक भी न गया हो- वही भक्त कहलाने का अधिकारी है।

आजकल कथावाचक तथा उपदेशक इस प्रकार प्रचार करते हैं कि लोगों का जो समय उनकी कथा या उपदेश सुनने में व्यतीत हो, वही सार्थक है। बाकी समय तो जगत के प्रपंच में ही रहकर व्यतीत होता है। सत्संग से तो केवल प्रभु के प्रेम के प्रति प्रेम, साधना का स्वरूप, जगत का यथार्थ स्वरूप, सत्संग की महिमा इत्यादि विषयों पर उच्चस्तरीय शुद्ध, सात्विक विचार मिलते हैं। साधन के प्रति उत्साह बढ़ता है। अनास अथवा निष्काम कर्म की युक्ति समझ में आती है। किन्तु वास्तविक लाभ- विषयों का भय तथा निष्काम कर्म के क्रियात्मक अभ्यास इत्यादि का विकास- जगत के कर्म अथवा साधना करते हुए ही प्राप्त होता है। भक्ति का अभ्यास स्थल सत्संग न होकर व्यावहारिक कार्यक्षेत्र है। जो लोग कर्म से उदासीन रहते हैं, साधना में उत्साह नहीं दिखाते, किन्तु सत्संग में अधिक रुचि लेते हैं, उनका सत्संग श्रवण- वासना ही कहा जाएगा।

No comments:

Post a Comment